न चक्षुषा गृह्यते नाऽपि वाचा नान्यैर्देवैस्तपसा ज्ञानप्रसादेन कर्मणा वा । विशुद्धसत्त्व- स्ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः ।।८।।
न चक्षुषा गृह्यते नाऽपि वाचा नान्यैर्देवैस्तपसा ज्ञानप्रसादेन कर्मणा वा । विशुद्धसत्त्व- स्ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः ।।८।।
अर्थ:- परमशिव को न तो आखें देख सकती हैं, और न वाणी उसका वर्णन कर सकती है। अन्य इन्द्रिय भी उसका प्रत्यक्ष नहीं कर सकते । कृच्छ्र चान्द्रायणादि ब्रतानुष्ठानरूप तप अथवा वैदिक कर्मों से भी उसे पाया नहीं जा सकता । किन्तु जब भक्त ज्ञानस्वरूप परशिव के प्रसाद ग्रहण से निर्मल अन्तःकरण होता है, तब वह निष्कल शिवलिङ्ग का ध्यान करते हुए चिन्मय स्थिति होने के कारण स्वयं को शिवस्वरूप में देखता है ।।८।।
- मुण्डकोपनिषद् वीरशैव भाष्य।
ॐ नमः शिवाय।
© शौर्यनाथ शैव। ( ISSGT)
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